गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

लोहे की सीढ़ी पर सोने का सिंहासन

इस हैरत भरी दुनिया में सब मुमकिन है, नामुमकिन कुछ भी नहीं। मिडास और मैजिक गोल्डजैसी कहानियाँ तथा नेपाल के पारस पत्थरों के कमाल की किवदंतिया भले हम-सब को कपोल-कल्पित लगे किन्तु हाथ कंगन को आरसी क्या...!

पुराने लोगों ने देवकी नन्दन खत्रीलिखित चंद्रकांता-संततिज़रूर पढ़ा होगा। ऐय्यारी और तिलिस्म का ऐसा बेमिसाल उपन्यास कि पढ़ते-पढ़ते लोग चौंक उठते थे। खैर वह उस जमाने की बात थी। ज़माना आया और चला गया। अब जो ज़माना बतौर बेश-क़ीमती नियामत ऊपरवाले ने हम सब को अता फरमाया है, उसका तो जवाब नहीं। आज तो ज़िंदा खड़ा वन पीस आदमी स्वर्गवासी और जो सचमुच स्वर्गवासी हो गया उसे भरी दुपहरिया में भिंडी खरीदते देखा जाता है। यह किसी विज्ञान का कमाल नहीं बल्कि आदमी की फितरत, ऐय्यारी या तिलिस्म का अजब कारनामा है। ऐसे में यदि लोहे की सीढ़ी पर सोने का सिंहासन स्थापित हो जाता है तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

बुधवार, 4 जून 2014

‘माँ…’ | Maa... | Mother...

माँ, माई, मैय्या, माता के साथ जुड़ी ममता। अर्थात सम्पूर्ण जगत। ममता का महासागर। स्नेह की सहस्त्रधारा। कदमों में जन्नत की बेपनाह खुशी। अनगिनत सिंहासनो का असीमित सुख उसकी गोद। ऐसी माँ के रूप का वर्णन करने के लिए यदि तमाम आकाशगंगाओ को शब्द-रूप में लिख दिया जाय तो भी नहीं किया जा सकता है। नहीं भूल सकता हूँ उस परम-पवित्र माँ के लिए लिखी गई इन पंक्तियों को:

वह आंखें क्या आंखें हैं, जिसमे आँसू की धार नहीं,
वह दिल पत्थर है, जिस दिल में माँ का प्यार नहीं।

आज अपने जीवन के 77वें बसंत को पार करते हुए जब कभी बड़ी शिद्दत से अपनी माई या माँ को याद करता हूँ तो आज भी अपने को घुटुरन चलत रेनु तनु मंडित अनुभव करके आल्हादित हो उठता हूँ। जैसा उनका नाम कौशिल्या था। उसी प्रकार उनका स्वभाव भी था। उनमें मेरी समझ से यशोदा और कौशिल्या का मिला-जुला रूप था। यद्द्पि शिक्षा तो न के बराबर थी किन्तु मेरी तालीम पर जितना पिताजी का ध्यान होता था उससे कहीं अधिक माँ का हुआ करता था। कहने को तो मैं इकलौता पुत्र था और तीन बच्चों की मौत के बाद बदकिस्मती के साये में मेरा जन्म हुआ था। अपनी पवित्र माँ के अमृत समान दूध में जहां मुझे प्रेम और सद-व्यवहार की पौष्टिकता भरी मिठास मिली वहीं उनके मार्गदर्शन से जीने की एक नई राह मिली।

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

राग दरबारी और मालकोश की जुगलबंदी

ज़्यादातर संगीत-प्रेमी जानते होंगे कि इन दोनों रागों का संगीत में अपना अलग-अलग महत्व है। यह ज़रूर है कि बदलते वक्त के मिज़ाज के साथ इनके विलंबित और द्रुत लय में आधुनिक संगीतकारों ने बदलाव लाने की पुरज़ोर कोशिश की है। वैसे पहले विलंबित और बाद में द्रुत गाया जाता रहा है। ज़माना ही कुछ ऐसा आ गया है कि हर चीज़ घासलेटी हो गई है। आज के डुप्लीकेट टेक्निकल संगीतकारों ने दोनों रागों को इस तरह तोड़-मरोड़ कर पेश करने की जुगत भिड़ाई है कि उन्हे राग दरबारी से दरबार में सुनहरी कुर्सी हासिल हो सके और फिर राग मालकोश गा कर माल का कोष यानी मालामाल हो सकें।

बुधवार, 14 नवंबर 2012

राष्ट्र निर्माता - पंडित जवाहरलाल नेहरू

मिटा देगा कितनों को इतिहास लेकिन जो जीने के क़ाबिल है जीता रहेगा। अचानक किसी की कही गई पंक्ति मेरे दिलो-दिमाग के दायरे में कौंध उठी जब नन्हें-मुन्ने बच्चे बाहर खुली सड़क पर अपना सीना ताने पंक्तिबद्ध होकर चाचा नेहरू ज़िंदाबाद के नारे लगाते हुए चले जा रहे थे। साथ चलते हुए उनके मास्टर साहबानों में से कुछ पूछ रहे थे कि ‘आज क्या है’? नाक सुड़कते बच्चे बड़े उत्साह के साथ जवाब दे रहे थे आज बाल-दिवस है। पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन जो भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। हम उन्हे बड़े प्यार से चाचा नेहरू कहते हैं क्योंकि वह हमें बहुत प्यार करते थे। तभी मुझे एक गीत की पंक्ति याद आ गई नन्हें-मुन्ने बच्चों तेरी मुट्ठी में क्या हैमुट्ठी में है तदबीर हमारी हमने क़िस्मत को वश में किया है

बच्चों की ही नहीं बल्कि देश की क़िस्मत बदलने की तदबीर सिखाने का सेहरा निश्चित ही उस महान व्यक्ति के सर पर बंधना चाहिए जिसने अमीरी के लबादे को एक झटके में उतार फेंका और पहन लिया देशभक्ति का साधारण लिबास। संकल्प ले लिया कि भारत को नए ज़माने की एक नई पहचान देंगे जिसे देख कर विश्व की महाशक्तियाँ भी अचरज में पड़ जाएँगी। बेशक उस चाचा नेहरू जिसका असली नाम पंडित जवाहरलाल नेहरू था जिसके कपड़े पेरिस से धुल कर आया करते थेजिसने विदेशों के नामीगिरामी विश्वविद्यालयों से तालीम हासिल की और विदेशी परिवेश में लगभग ग्यारह साल बिताने के बावजूद अपने गरीब और गुलाम देश को नहीं भूलें बल्कि एक संकल्प देशभक्ति का ले कर स्वदेश लौटे। बात सही है कि अगर मन में दूरदृष्टिअनुशासन और पक्का इरादा हो तो संकल्प अवश्य पूरा होगा और बड़े से बड़े स्वप्न ज़रूर साकार होंगे पर मन में हो अटल विश्वास। इसी तरह राजकुमार सिद्धार्थ जो बड़े बाप का बड़ा बेटा था निकल पड़ा था विलास-वासना एवं राज्य-लिप्सा को त्याग कर और अपनी मंज़िल पाने पर बन गया महात्मा बुद्ध। किसी ने कभी ठीक ही कहा था हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती हैबड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

विश्व को ज्ञान का दीपक दिखाने वाले भारत की गुरबत और गुलामी का बदनुमा नक्शा हमेशा विदेश में भी नेहरूजी को कचोटता रहा और वह सोचा करते थे कि वह शुभ दिन कब आयेगा जब हर हिंदोस्तानी बिना धर्ममजहबजाति और भाषायी भेद-भाव के बा-आवाज़े बुलंद खुश होकर बोलेगा आज हथकड़ी टूट गई हैनीच गुलामी छूट गई है। विदेश से जब जवाहरलाल नेहरू स्वदेश वापस लौटें तो उनकी आँखों में गजब की चमक थी और अंग्रेज़ी हुकूमत से भारत को आज़ाद कराने का अजब सा जज़्बा। वह उस ज़माने के सुप्रसिद्ध वकील पंडित मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे। जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। शुरू में उन्होने वकालत का पेशा अपनाया।

इस बात पर ध्यान देना मेरी समझ से आवश्यक है कि उनके भीतर एक समाजवाद का विद्यार्थी पल-बढ़ रहा था तभी तो उन्होने इंग्लैंड में रहते हुए फ़ैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद के लिए एक तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित करने की कोशिश किया जिसके आधार पर वह भारत को एक नई दिशा दे सकें।

विदेश में रहते हुए भी उनके भीतर स्वदेश के स्वाधीनता की आग सुलग रही थी जो यहाँ वापस आने पर धधक उठी। आखिरकार वह अपने को रोक न सकें और 1917 में होमरूल आंदोलन में कूद पड़े। राजनीति में उन्हे असली दीक्षा दो साल बाद 1919 में हुई जब वे गांधीजी के संपर्क में आए। महात्मा गांधी जैसे महान संत के संपर्क में आने के बाद नेहरुजी में देश की आज़ादी के प्रति मोह जागा। यही नहीं उनके व्यक्तित्व ने अपने पूरे परिवार का ही ह्रदय-परिवर्तन कर दिया और सब को खादी की हसीन वादी में जयहिंद का एक बुलन्द जयघोष करना सिखाया। उनके सुसमृद्ध परिवार ने आम शहरी की तरह एक तराना छेड़ा आज हिमालय की चोटी से हमने यह ललकारा हैदूर हटो ऐ दुनियावालों यह देश हमारा है

पंडित जवाहरलाल नेहरू के बारे मे निःसंकोच कहा जा सकता है कि हम अकेले ही चले थे जानिबे-मंज़िललोग मिलते गए कारवाँ बनता गया। तभी तो उन्हे गांधीजी से देश की स्वाधीनता की डगर पर चल पड़ने की दीक्षा मिली थी। सुभाष चन्द्र बोस के संपर्क मे आए।  फिर तो सारा भारत उनके पीछे चल पड़ा। फिर से लाखों हिंदुस्तानियों ने आवाज़ बुलंद करना शुरू किया स्वाधीनता हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार हैजिससे पूरे इंग्लिश चैनल में तेज़ तूफान आ गया। पं॰ नेहरू और सुभाष बाबू मिलकर भारत के लिए पूरी राजनैतिक स्वतंत्रता की माँग कर रहे थे जबकि गांधीजी व पं॰ मोतीलाल नेहरू उनके पिता तथा अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर रह कर प्रभुत्व सम्पन्नता का दर्ज़ा पाने का प्रस्ताव पारित किया था।

दिसंबर 1929 में कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन के दरम्यान पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने पूर्ण स्वतंत्रता की आवाज़ बुलंद करते हुए पहली बार ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देते हुए लाहौर में तिरंगा राष्ट्रीय झंडे के रूप में फहराया जो शायद भविष्यवाणी थी कल के स्वतंत्र-भारत के 15 अगस्त 1947 की। इसी से पंडित जवाहरलाल नेहरू की दूरदर्शिता का पता चलता है। देश की स्वाधीनता के प्रति उनकी समर्पण-भावना का आभास मिलता है।

सत्य की विजय हुई। लाखों-लाख भारतीयों के सपने साकार हुए। पूर्व बलिदानियों की आत्माओं को अपर शान्ति मिली। आखिरकार 15 अगस्त 1947 को देश के लालकिले पर तिरंगा फहराया गया और फिरंगी हुकूमत का खात्मा हुआ। स्वाधीनता की लड़ाई में जान की बाज़ी लगाने वाले ज्ञात और अज्ञात शहीदों को सलाम करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू आज़ाद-हिंदुस्तान के पहले प्रधान-मंत्री बने।

प्रधानमंत्री की कमान संभालने के बाद पंडित नेहरू के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश की लगभग पाँच सौ रियासतों को एक कड़ी में पिरो कर भारत को एक सर्वसत्तात्मक प्रभुत्व संपन्न लोकतान्त्रिक राष्ट्र बनाने की थी जिस अभूतपूर्ण स्वप्न को उन्होने साकार कर दिखाया। यही नहीं बल्कि उन्होने वसुधैव-कुटुम्बकम की भावना के अंतर्गत  युगोस्लोवाकिया के मार्शल टीटो और मिस्र के प्रेसीडेंट कर्नल नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के ख़ात्मे के लिए निर्गुट आंदोलन का गठन किया। उन्होने कोरियाई युद्ध को समाप्त करनेस्वेज़ नहर विवाद और कांगो समझौते को मूर्त रूप दिया। यह भारत जैसे गरीब देश के पहले प्रधान-मंत्री पं॰ नेहरू के महान व्यक्तित्व से संपूर्ण विश्व को अचंभे मे डाल दिया।

पंडित नेहरू ने देश की गरीबी दूर करने के लिए भी भरपूर प्रयास किया। उन्होने देश के संपूर्ण विकास के लिए योजना-आयोग का गठन किया। इसमे कोई शक नहीं कि उन्होंने भारत को एक आधुनिक भारत का निर्माण करने में प्रमुख भूमिका निभायी। विज्ञान और प्रद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया जिसका नतीजा आज भारत का भाकड़ा-नांगल विशाल बांध और दामोदर घाटी योजना है। इसके अलावा देश में फैले बड़े-बड़े कल-कारखाने नेहरू के आधुनिक भारत की सच्ची तस्वीर है जिसे विश्व की कही जाने वाली महाशक्तियाँ इस तरफ विस्मय से देख रही हैं। यह उनकी ही देन है कि आज हम विशाल आकाश में परवाज करते हुए अंतरिक्ष में रहने लायक ज़मीन खोजने में दिलोजान से जुट गए हैं। निश्चित ही आधुनिक भारत का यह प्रारूप देने में पंडित जवाहरलाल नेहरू का अभूतपूर्व संकल्प था और उनका पक्का इरादा। इसलिये अगर उस दिवंगत महापुरुष को सच्चे मानो में राष्ट्र-निर्माता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। 27 मई 1964 को जब पंडित नेहरू का पार्थिव शरीर हज़ारों-हज़ार गुलाब की महकती पंखुड़ियों की सेज पर चिर-निद्रा में थातो सिर्फ देश-विदेश के लोग ही शोकाकुल नहीं हुए थे बल्कि कुछ पल के लिए आकाश सुबक उठा था और धरती अपनी धुरी पर ठहर गई थी। वहाँ बिछे फैले अनगिनत गुलाबों की पंखुड़ियाँ फिजाँ में फैलाती महक़ आज भी भारत को बेपनाह खुशबूदार बनाते हुए जैसे इकबाल का वही शेर गुनगुना रहीं हैं सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा। क्योकि पंडित जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र-निर्माता थें। आज वह अलौकिक प्रकाश-पुंज हमारे बीच नहीं है किन्तु उनका दिखाया गया प्रकाश सदैव भारतवासियों का मार्गदर्शन करता रहेगा। यह राष्ट्र हमेशा उन्हे याद करता रहेगा। इतिहास कभी उन्हे न भुला पाएगा।

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

आखिर क्यों?

मेरा ‘दायरा। मैं ‘दायरे’ में सिमट रहा हूँ या ‘दायरा’ मुझमें सिमट रहा हैकुछ कह नहीं सकता हूँ। बस इतना जानता हूँ कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बगैर कोई एक पल नहीं जी सकता है। जैसे दो जिस्म एक ज़ान। मेरे ‘दायरे’ के भीतर हालिया अखबारों की कुछ कतरनें बिखरी पड़ीं हैं। बाहर खुली सड़क पर हवा में महँगाईभ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ लोग गुम्में उछाल रहें हैं। लग रहा है कि सचमुच लोकतंत्र का मौसम अपने शबाब पर है। मौसम की फुहार है। सुहानी भी संभव है और जानलेवा भी। सुहाना मौसम उनके लिए जो अपने बरामदे मे बैठे-बैठे जाम लड़ाते हुए फुहार का मज़ा लेते हैं। जानलेवा रमफेरवा जैसे फ़टीचर लोगों के लिए जिनके मिट्टी के घरों में पानी समकते हुए ढहने का डर बना रहता है। मुझे भी रह-रह कर डर बना है कि कहीं इन फुहारों से मेरे ‘दायरे’ की दरो-दीवार न दरक जाए। इसमें कोई दर्शन नहींकोई फिलासफ़ी नहीं। एक हकीकत जिसे मैं अपने दायरे में बैठा झेल रहा हूँ।

कुछ महसूस हुए पल को लिखना चाहता हूँ। अपने अजीज़ों में बाँटना चाहता हूँ पर लिखने के नाम से डर लग रहा है। क्योंआखिर क्योंइसलिए कि कहीं देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल के सींखचों के पीछे न डाल दिया जाये। क्योंकि सुना है कि किसी ने उल्टी-सीधी आड़ी-तिरछी रेखाओं के सहारे दिल की बात कोरे कागज़ पर उकेरी तो उसे देशद्रोही करार कर के जेल मे डाल दिया गया। किसी ने दकियानूसी बातों के खिलाफ कुछ नया लिखने का प्रयास किया तो कुछ सिरफिरे लोगों ने उस पर फतवा जारी करके मौत के घाट उतारने की धमकी दे डाली।

लोकतंत्र के सुहाने मौसम में विदेशी कंपनियों को सड़क किनारे गोलगप्पे का ठेला लगाने और आलू प्याज़ बेचने की बे-मौसम बारिश कुछ गले नहीं उतर रही है। मेरे दायरे के बाहर-भीतर ऐसी अजीबो-गरीब आकृतियाँ ऐसी गंदी हरकतें करतीं दिखाई दे रहीं हैं की इंसानियत शर्मसार हो रही है। कभी-कभी महसूस होता है कि दूसरे नापाक ग्रहों के नामुराद बाशिंदे मेरे दायरे पर आधिपत्य जमाने के लिए इकट्ठे हो गए हैं जो पानी की जगह डीजल और पेट्रोल से अपनी प्यास बुझा रहें हैं। हमदर्दी का दिलकश मुखौटा पहन कर मेरे दायरे मे मेरे पास बैठकर मेरे अनगिनत घावों पर मलहम लगाने का स्वांग रचते हैं पर बाहर निकल कर अपने भाई-भतीजों के साथ घाव से बहते पीप को पी कर अपनी सेहत सुधारने के चक्कर में रहते हैं। आखिर क्यों?

क्योंवही एक यक्षप्रश्न हमेशा सालता रहता है। सुना है कि अपने मीरसाहब का चूल्हा कई दिनों से ठंडा पड़ा है। रमफेरवा गाँव भर में कहता फिर रहा है कि बिन पानी सब सून। एक आदमजात मेहरबान कुर्सी-नशीं नगाड़े की चोट पर ऐलान करता है कि किसान भाइयों को पानी मुफ्त दिया जाएगा। मगर जब सूखे तालाबप्रदूषित नदियाँ और सूखी नहरों का नज़ारा सामने दिखाई देता है तो कुदरत के भरोसे अपने दायरे की टपकती छत को एक टक निहारता रह जाता हूँ। कहीं सामने ज़मीन पर बिखरी पड़ी अख़बार कि कतरनें गल न जाएँ इसलिए बाप-दादा के ज़माने की पुरानी पतीली लगा देता हूँ। छत से पानी टपटप करके गिरते हुए जब पतीली भर जाती है तो कुछ पीकर गले की ख़राश मिटा लेता हूँ। और बाकी को बाहर बज़बज़ाती नाली में फेंक देता हूँ। सहारा कुदरत द्वारा टपकाती जल की बूँदों का और भरोसा अपने भाग्य का। खुशी विरासत में मिली इस दायरे की जिसने इस छोटी सी ज़िंदगी के सैकड़ों उतार-चढ़ाव देखे हैं। जिसने सामंतवादी शामियाने में आतिशबाजियों का मज़ा भी लिया है। वहीं सफ़ेद चमड़ी वाले एलियन की धमाचौकड़ी भी देख-देख कर मन ही मन कुढ़ता भी रहा हूँ। मंदिरों की घंटियाँ भी सुनी है और मस्जिदों से आने वाली सदायें भी।

सब के बीच हमेशा अपने इकलौते ‘दायरे’ ने अपना वजूद बनाए रखने में खूब जद्दोजहद करके इस मुकाम तक पहुंचने में कामयाबी हासिल की पर अफसोस हमने जहाँ से सफर शुरू किया था वहीं फिर पंहुच गए। अब तो अपने हुए पराएदुश्मन हुआ ज़मानाजो पहले नहीं था। न कभी देखा सुना था। जब लोकतंत्र रूपी मलयगिरि से चलने वाली शीतल हवाएँ आकाश से बातें करती ऊँची हवेलियाँ अपनी तरफ मोड़ लें तो कोई कर ही क्या सकता हैसावन की ठंडी फुहार भी उन्ही की संगमरमरी छतों पर गिरती है और सूरज की पहली किरण भी सबसे पहले उन्ही हवेलियों पर अपनी आभा बिखेरती हैं। रही अपने दायरे की बात तो उसके बारे में कुछ भी कहने से अच्छा चुप रहना ही ठीक है क्योंकि आजकल भाग्यविधाता भगवान भी उन्ही के वश में है। जिसके पास जितनी काली सफ़ेद लक्ष्मी-गणेश की जोड़ी है उसका उतना ही बड़ा पावर मेरे जैसे दायरों पर हावी होता दिखाई देता है। ऐसे में मेरे ‘दायरे’ के बाहर लोग किराये के भोंपू पर ‘भारत-बंद’ कराने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती करते सुनाई दे रहें हैं। एक तरफ हम अखंड-भारत के हिमायती बने घूम रहें हैं और दूसरी तरफ भारत-बंद का हो-हल्ला। अज़ब हैरत की बात है। कभी गरीब-गुरबों के नाम से पहचाने जाने वाले भारत बंद कराने वाले शायद भूल गए हैं कि उनका क्या होगा जो अगर रोज़ कमाएँ नहीं तो उनके बच्चे भूखे एक ही कथड़ी में सिमट कर सो जायेंगे।  समस्या जस की तस रहेगी। मैं अपने तंग ‘दायरे’ के एक कोने में सिमटा हुआ सोंच रहा हूँ कि एक ज़ुबान से मंहगाईभ्रष्टाचार और दूसरे घोटालों से घिरी सरकार के ख़िलाफ पहले न-न और उसी ज़ुबान से बाद में हाँ-हाँ। आखिर क्योंइसी देश में कभी कहा गया था ‘प्राण जाय पर वचन न जाए। साधुवाद की पात्रा है वह एक मात्र नारी जिसने दिल्ली के तख्ते-ताऊस की लालच छोड़ कर भूखी-नंगी जनता की शक्ति का प्रदर्शन कर के आवाज़ बुलंद कर डाली सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

मेरे आजतक समझ में नहीं आ रहा है कि अपने भीनी-भीनी खुशबूवाले लोकतंत्र में जनता बड़ी है या सुनहरा तख्ते-ताऊस। मेरी समझ से मानव निर्मित तख्ते-ताऊस अस्थाई है और मानव-मानव एक समाज स्थायी जिसे कुदरत ने अपने हाथों से गढ़ा है। फिर उसके लिए इतनी मारा-मारी क्योंजनता ही जिसकी ज़िंदगी हो फिर उस ज़िंदगी से इतनी रुसवाई क्योंअपने कस्मेंवादों से मुकरना कैसाक्या सचमुच आज की राजनीति का यही तागाज़ा हैइसका मतलब हमने अतीत की गलतियों से कोई सबक नहीं लियावक्त आ गया है कि हमारे रहनुमा समझें जनता कोई भेंड़ नहीं जिन्हे हम अपने मनमाने ढंग से हाँकते रहें

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

गांधी बहुत याद आए...


आज दो अक्टूबर है यानी गाँधी और पूर्व प्रधान-मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती। अपने बरामदे में बैठा देख रहा हूँ कि छोटे गरीब स्कूलों के नाक सुड़कते बच्चे प्रभात-फेरी कर रहें ‘महात्मा गाँधी की जयभारत माता की जय का नारा’ लगाते हुए लाइन से चले जा रहें हैं। जहां आवाज़ कुछ मद्धम पड़ती, दो लाइनों के बीच में पतली छड़ी लिए मास्टर साहब किसी सर्कस के रिंगमास्टर की तरह छड़ी दिखा कर उन मासूमों को तेज़ बोलने का इशारा कर रहे हैं। ताज्जुब हो रहा है कि उस प्रभात-फेरी में न तो शहर के बड़े नाम वाले छात्र शामिल हैं और न उनके बड़ी डिग्री वाले टीचर। शायद मेरी सोच गलत हो सकती है क्योंकि मरहूम गांधी बाबा लंगोटी वाले सिर्फ गरीबों के मसीहा थे। उसी मोटिया खादी की अधलंगी धोती में उघरे बदन भारत की सच्ची तस्वीर दिखाने वह लन्दन की किटकिटाती सर्दी में पहुंचे थे सिर्फ अपने आत्मबल के बल पर। उसी आत्मबल ने फिरंगियों तक को उन्हे महात्मा कहने और भारत को आज़ाद करने पर मज़बूर कर दिया था।

पर आज उस आत्मबल के बल पर मिली आज़ादी के अँगने में हम खूब मौज तो उड़ा रहें हैं पर गांधी और खादी का नाम लेने में सिर्फ खाना पूरी कर रहे हैं। आज के दिन जब मैं गरीब स्कूलों के इन गरीब बच्चों को सिर्फ ऊपर से आए हुक्मनामे के मुताबिक़ प्रभातफेरी करते देख रहा हूँ तो एक बात अपने छोटे से दिमाग के दायरे में चकरघिन्नी की तरह चक्कर काट रही है कि ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों में दौड़ने वाले नामी-गिरामी स्कूल-कालेजों के हाई-फ़ाई बच्चे अपने टाई-सूट पहने मास्टर साहबान के साथ इस प्रभात-फेरी की लाइन में क्यों नहीं शामिल हो रहें हैं?  शहर के सभी छुटभैया और बड़-भैया नेतागण पार्टी-वार्टी का भेद-भाव छोड़ कर गांधीजी को याद करने के लिए मोहल्ले-मोहल्ले क्यों नहीं घूमते हैं क्योंकि उस महात्मा ने सब के लिए, सब के द्वारा और सब की आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी।

पर आज के सर्वप्रमुख दिवस पर ऊपर से नीचे तक केवल दिखावा मात्र से बापू के जन्मदिन पर कुछ किया जा रहा है। मुझे तो लग रहा है कि एकदिन भी आ सकता है जब आने वाली पीढ़ी इक्के-तांगों की तरह गांधी को भूल कर सिर्फ अपने और अपने भाई-भतीजों के लिए शानदार पार्टी मे बेमिसाल गिफ्ट लेना जिससे उनके लिए संसद और विधान-सभा के गलियारों में दाखिल होने का रास्ता साफ हो सके। ऐसे में भला कौन याद रखेगा गुज़रे हुए ज़माने के गांधीनेहरू और शास्त्री को? काम निकल गयादुख बिसर गया। क्या अच्छा होता जब उस महात्मा के लिए श्र्द्धा-स्वरूप शहर के तमाम अफ़सरान उन भोले-भाले बच्चों की अगुवानी करते हुए प्रभात-फेरी करते हुए गली-कूचों में घूमने के लिए शामिल होते। इससे दो बातें होतीं। एक तो उन बच्चों का उत्साह बढ़ता और दूसरे उनको गली-कूचों की जानकारी भी हो जाती कि वहाँ उनके आदेशों का कितना पालन किया जा रहा है जो शायद दो अक्टूबर की रौनक़ में चार चाँद लग जाता। पर यहाँ तो अपने आदेशों का खुद पालन करने की आदत नहीं है। मिल गए खुदा के फज़ल से छोटे स्कूल, उनके फटीचर बच्चे और प्रबन्धक के रहमोकरम पर नौकरी बजाने वाले मस्टरवा लोग। 

जब गांधी और शास्त्री को लोग भूलते जा रहें हैं तो खादी की दादी को याद रखना तो बहुत मुश्किल है। भूल गए की कभी दादी खादी ने आज़ादी की लड़ाई में पेट भरने के लिए गरीबों को रोजगार मुहय्या कराने का जतन किया था। उस कारगर जतन को जन्नत की राह बनाने के बजाय खादी की दादी को बरबादी तक पहुचाने का इंतज़ाम किया जा रहा है। बात है न बड़े अफसोस की। सबसे ज़्यादा अफसोस तो उन माननीयों को देख कर हो रहा है जिनको इतना सा इल्म नहीं है कि आज वे जो रुतबा हासिल कर रहें हैं उन सब के पीछे खादी और गांधी का ही हाथ है। मैं उनकी बेशकीमती पोशाक पर जल नहीं रहा हूँ बल्कि उन्हे एक सच्चे साथी के नाते सलाह दे रहा हूँ कि कम से कम उस परम-पवित्र गलियारे में खादी पहन कर दाखिल होना अपना कर्तव्य समझें।

सबसे ज़्यादा दुख तो यह देखकर हो रहा है कि पहले तो गांधी से ले कर नेहरू तक ऊंची कुर्सी वाले खादी की दादी को ज़्यादा स्वस्थ और उम्रदराज बनाने के लिए छूट की टानिक पिलाई जाती थी पर अब पत्थरों के शहर मे सबके सब पत्थरों के संगदिल बुत बन गए हैं। उनके दिलों में प्यार कहाँ,आदर-भाव कहाँ?

बुधवार, 21 सितंबर 2011

थोड़ा संभल कर बोले

आज के समाचारपत्र में अपने माननीय गृहमन्त्रीजी के बेबाक बयान को पढ़ कर दिल बाग-बाग हो उठा। वैसे अन्ना के अनशन के समय भी उनका बयान काबिलेतारीफ रहा मगर मेरा अपना निजी ख्याल है कि वह थोड़ा संभाल कर बोले तो सोने पर सुहागा हो सकता है। इसलिए लिख रहा हूँ कि उनके बयान को सारी दुनिया सुन रही है। मैं न तो नक्सलियों का हिमायती रहा हूँ और न ही आतंकवादियों का। हिंसा किसी प्रकार की हो उसका विरोध करता रहा हूँ। किन्तु हमारे माननीय गृहमंत्री ने आतंकवादियों से ज़्यादा खतरनाक नक्सलियों को बता कर अपने घर की पोल खोल दुनिया को हंसने का मौका दे दिया। लोग यही कहेंगे कि जो मुल्क अपने घर मे छुपे दुश्मन से नहीं निपट सकता वह बाहर के इशारे पर खूंरेजी करते आतंकवादियों से कैसे निपटेगा ?अपने दिल पर हाथ रख कर चिंता करें कि उन्होने उतना प्रयास किया या उतना धन खर्च किया जितना पड़ोसी मुल्क से आए किराए के टट्टू आतंकवादियों के दमन पर खर्च कर रहें हैं? शांति और सदभावना का राग अलापते हुए उन इन्सानियत के खुख्वार आतंकवादियों से न जाने कितनी बार शांतिवार्ता करते चले आ रहें हैं जबकि यह जानते हैं कि कुत्ते की दुम सौ बरस तक पाइप में रखने के बाद भी सीधी नहीं हो सकती है। उनके लाडले कपूतों पर सलाखों के पीछे कितना खर्च किया जा रहा है जिसका कोई हिसाब नहीं है। अफसोस तो यह है कि अपने ही देश में जन्मे पले-बढ़े दबे कुचले लोगों के गुमराह होने का कारण न तो गृहमंत्री ने समझा और न किसी मनोचिकित्सक ने। इलाज समझ में भी आया तो सिर्फ संगीनों के साये में उन्हे मार गिराना। हमारे आला जनाब गृहमंत्री और उनके दूरदर्शी मुसाहिबों ने कभी समझने कि ज़हमत नहीं उठाई कि आखिर वह कौन सा कारण था जो एक छोटे से ग्राम में जन्मी नक्सली हिंसा ने आधे से ज़्यादा देश को अपने चपेट मे ले लिया है और जिसमें समाज के निचले तपके के लोग ही हैं। माननीय गृहमंत्री और उनके काबिल सलाहकारों को थोड़ा मंथन करने की ज़रूरत है कि अपने ही देश में बसने वालों के सामने किस बात ने मजबूर कर दिया जो उन्हे हथियारों से मुहब्बत हो गई है। स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास गवाह है कि हमेशा समाज दो हिस्सों मे बंटा रहा , एक गरमदल और दूसरा नरमदल। लोग बताते हैं कि उन्हे गरमदल के अंतर्गत मौजूदा व्यवस्था से संतोष नहीं है और उनके नज़रिये से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए हथियार ही एकमात्र साधन हो सकता है। जिसे कम से कम उनसे मनोवैज्ञानिक तरीके से वार्ता करने का प्रयास किया जाना आवश्यक है क्योंकि आखिर उन्हे अपनी माटी से लगाव है और अपनी जन्मभूमि से बेपनाह प्यार है। पंजाब मे पनपा उग्रवाद इसका जीता-जागता उदाहरण है। लेकिन इस मौके पर आतंकवाद को कम और देश में देश की व्यवस्था से असन्तुष्ट लोगों को ज़्यादा गुनहगार ठहराना एक गृहमंत्री के लिए उचित नहीं है । ऐसे वक्तव्य से उन खुख्वार विदेशी आतंकवादियों का मनोबल ऊंचा हो सकता है और देश में किसी वजह से जन्मे मनोरोग की सही रूप से चिकित्सा नहीं हो सकेगी, उल्टे देश की छवि धूमिल हो सकती है। इसलिए जो कुछ मुल्क के अलंबरदारों द्वारा बोला जाय उसे बहुत सोच-समझ कर बोला जाय ,उन्हे सही रास्ते पर लाना आसान है क्योंकि वे अपने हैं। उन्हे इस देश से नहीं बल्कि व्यवस्था से विरोध है। उन्हे विकास चाहिए, भ्रष्टाचार के रूप में विनाश नहीं।