‘मिटा देगा
कितनों को इतिहास लेकिन जो जीने के क़ाबिल है जीता रहेगा’। अचानक किसी की कही गई
पंक्ति मेरे दिलो-दिमाग के दायरे में कौंध उठी जब नन्हें-मुन्ने बच्चे बाहर खुली
सड़क पर अपना सीना ताने पंक्तिबद्ध होकर ‘चाचा नेहरू ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए चले जा रहे थे। साथ चलते हुए उनके मास्टर साहबानों में
से कुछ पूछ रहे थे कि ‘आज क्या है’? नाक सुड़कते बच्चे बड़े उत्साह के साथ जवाब दे रहे थे ‘आज बाल-दिवस है। पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन जो भारत के पहले
प्रधानमंत्री थे’। हम उन्हे बड़े प्यार से चाचा नेहरू
कहते हैं क्योंकि वह हमें बहुत प्यार करते थे। तभी मुझे एक गीत की पंक्ति याद आ गई ‘नन्हें-मुन्ने बच्चों तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तदबीर हमारी हमने क़िस्मत को वश में किया है’।
बच्चों की ही नहीं
बल्कि देश की क़िस्मत बदलने की तदबीर सिखाने का सेहरा निश्चित ही उस महान व्यक्ति
के सर पर बंधना चाहिए जिसने अमीरी के लबादे को एक झटके में उतार फेंका और पहन लिया
देशभक्ति का साधारण लिबास। संकल्प ले लिया कि भारत को नए ज़माने की एक नई पहचान
देंगे जिसे देख कर विश्व की महाशक्तियाँ भी अचरज में पड़ जाएँगी। बेशक उस चाचा नेहरू
जिसका असली नाम पंडित जवाहरलाल नेहरू था जिसके कपड़े पेरिस से धुल कर आया करते थे, जिसने
विदेशों के नामीगिरामी विश्वविद्यालयों से तालीम हासिल की और विदेशी परिवेश में
लगभग ग्यारह साल बिताने के बावजूद अपने गरीब और गुलाम देश को नहीं भूलें बल्कि एक
संकल्प देशभक्ति का ले कर स्वदेश लौटे। बात सही है कि अगर मन में दूरदृष्टि, अनुशासन और पक्का इरादा हो तो संकल्प अवश्य पूरा होगा और बड़े से बड़े
स्वप्न ज़रूर साकार होंगे पर मन में हो अटल विश्वास। इसी तरह राजकुमार सिद्धार्थ
जो बड़े बाप का बड़ा बेटा था निकल पड़ा था विलास-वासना एवं राज्य-लिप्सा को त्याग
कर और अपनी मंज़िल पाने पर बन गया महात्मा बुद्ध। किसी ने कभी ठीक ही कहा था ‘हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी
मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा’।
विश्व को ज्ञान का दीपक
दिखाने वाले भारत की गुरबत और गुलामी का बदनुमा नक्शा हमेशा विदेश में भी नेहरूजी
को कचोटता रहा और वह सोचा करते थे कि वह शुभ दिन कब आयेगा जब हर हिंदोस्तानी बिना
धर्म, मजहब, जाति और भाषायी भेद-भाव के बा-आवाज़े
बुलंद खुश होकर बोलेगा ‘आज हथकड़ी टूट गई है, नीच गुलामी छूट गई है’। विदेश से जब जवाहरलाल नेहरू
स्वदेश वापस लौटें तो उनकी आँखों में गजब की चमक थी और अंग्रेज़ी हुकूमत से भारत
को आज़ाद कराने का अजब सा जज़्बा। वह उस ज़माने के सुप्रसिद्ध वकील पंडित मोतीलाल
नेहरू के पुत्र थे। जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में हुआ
था। शुरू में उन्होने वकालत का पेशा अपनाया।
इस बात पर ध्यान देना
मेरी समझ से आवश्यक है कि उनके भीतर एक समाजवाद का विद्यार्थी पल-बढ़ रहा था तभी
तो उन्होने इंग्लैंड में रहते हुए फ़ैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद के लिए एक
तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित करने की कोशिश किया जिसके आधार पर वह भारत को एक नई
दिशा दे सकें।
विदेश में रहते हुए भी
उनके भीतर स्वदेश के स्वाधीनता की आग सुलग रही थी जो यहाँ वापस आने पर धधक उठी।
आखिरकार वह अपने को रोक न सकें और 1917 में होमरूल आंदोलन में कूद पड़े। राजनीति
में उन्हे असली दीक्षा दो साल बाद 1919 में हुई जब वे गांधीजी के संपर्क में आए।
महात्मा गांधी जैसे महान संत के संपर्क में आने के बाद नेहरुजी में देश की आज़ादी
के प्रति मोह जागा। यही नहीं उनके व्यक्तित्व ने अपने पूरे परिवार का ही
ह्रदय-परिवर्तन कर दिया और सब को खादी की हसीन वादी में ‘जयहिंद’ का एक बुलन्द जयघोष करना सिखाया। उनके सुसमृद्ध परिवार ने आम शहरी की तरह
एक तराना छेड़ा ‘आज हिमालय की चोटी से हमने यह
ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनियावालों यह देश हमारा है’।
पंडित जवाहरलाल नेहरू
के बारे मे निःसंकोच कहा जा सकता है कि ‘हम अकेले ही चले थे जानिबे-मंज़िल, लोग मिलते गए कारवाँ बनता गया’। तभी तो उन्हे
गांधीजी से देश की स्वाधीनता की डगर पर चल पड़ने की दीक्षा मिली थी। सुभाष चन्द्र
बोस के संपर्क मे आए। फिर तो सारा भारत उनके पीछे चल
पड़ा। फिर से लाखों हिंदुस्तानियों ने आवाज़ बुलंद करना शुरू किया ‘स्वाधीनता हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है’, जिससे
पूरे इंग्लिश चैनल में तेज़ तूफान आ गया। पं॰ नेहरू और सुभाष बाबू मिलकर भारत के
लिए पूरी राजनैतिक स्वतंत्रता की माँग कर रहे थे जबकि गांधीजी व पं॰ मोतीलाल नेहरू
उनके पिता तथा अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर रह कर प्रभुत्व सम्पन्नता
का दर्ज़ा पाने का प्रस्ताव पारित किया था।
दिसंबर 1929 में
कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन के दरम्यान पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने पूर्ण स्वतंत्रता
की आवाज़ बुलंद करते हुए पहली बार ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देते हुए लाहौर में
तिरंगा राष्ट्रीय झंडे के रूप में फहराया जो शायद भविष्यवाणी थी कल के
स्वतंत्र-भारत के 15 अगस्त 1947 की। इसी से पंडित जवाहरलाल नेहरू की दूरदर्शिता का
पता चलता है। देश की स्वाधीनता के प्रति उनकी समर्पण-भावना का आभास मिलता है।
सत्य की विजय हुई।
लाखों-लाख भारतीयों के सपने साकार हुए। पूर्व बलिदानियों की आत्माओं को अपर शान्ति
मिली। आखिरकार 15 अगस्त 1947 को देश के लालकिले पर तिरंगा फहराया गया और फिरंगी
हुकूमत का खात्मा हुआ। स्वाधीनता की लड़ाई में जान की बाज़ी लगाने वाले ज्ञात और
अज्ञात शहीदों को सलाम करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू आज़ाद-हिंदुस्तान के पहले
प्रधान-मंत्री बने।
प्रधानमंत्री की कमान
संभालने के बाद पंडित नेहरू के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश की लगभग पाँच सौ
रियासतों को एक कड़ी में पिरो कर भारत को एक सर्वसत्तात्मक प्रभुत्व संपन्न
लोकतान्त्रिक राष्ट्र बनाने की थी जिस अभूतपूर्ण स्वप्न को उन्होने साकार कर
दिखाया। यही नहीं बल्कि उन्होने वसुधैव-कुटुम्बकम की भावना के अंतर्गत युगोस्लोवाकिया के मार्शल टीटो और मिस्र के प्रेसीडेंट कर्नल
नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के ख़ात्मे के लिए निर्गुट
आंदोलन का गठन किया। उन्होने कोरियाई युद्ध को समाप्त करने, स्वेज़ नहर विवाद और कांगो समझौते को मूर्त रूप दिया। यह भारत जैसे गरीब
देश के पहले प्रधान-मंत्री पं॰ नेहरू के महान व्यक्तित्व से संपूर्ण विश्व को
अचंभे मे डाल दिया।
पंडित नेहरू ने देश की
गरीबी दूर करने के लिए भी भरपूर प्रयास किया। उन्होने देश के संपूर्ण विकास के लिए
योजना-आयोग का गठन किया। इसमे कोई शक नहीं कि उन्होंने भारत को एक आधुनिक भारत का
निर्माण करने में प्रमुख भूमिका निभायी। विज्ञान और प्रद्योगिकी के विकास को
प्रोत्साहित किया जिसका नतीजा आज भारत का भाकड़ा-नांगल विशाल बांध और दामोदर घाटी
योजना है। इसके अलावा देश में फैले बड़े-बड़े कल-कारखाने नेहरू के आधुनिक भारत की
सच्ची तस्वीर है जिसे विश्व की कही जाने वाली महाशक्तियाँ इस तरफ विस्मय से देख
रही हैं। यह उनकी ही देन है कि आज हम विशाल आकाश में परवाज करते हुए अंतरिक्ष में
रहने लायक ज़मीन खोजने में दिलोजान से जुट गए हैं। निश्चित ही आधुनिक भारत का यह
प्रारूप देने में पंडित जवाहरलाल नेहरू का अभूतपूर्व संकल्प था और उनका पक्का
इरादा। इसलिये अगर उस दिवंगत महापुरुष को सच्चे मानो में राष्ट्र-निर्माता कहा जाए
तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। 27 मई 1964 को जब पंडित नेहरू का पार्थिव शरीर
हज़ारों-हज़ार गुलाब की महकती पंखुड़ियों की सेज पर चिर-निद्रा में था, तो सिर्फ
देश-विदेश के लोग ही शोकाकुल नहीं हुए थे बल्कि कुछ पल के लिए आकाश सुबक उठा था और
धरती अपनी धुरी पर ठहर गई थी। वहाँ बिछे फैले अनगिनत गुलाबों की पंखुड़ियाँ फिजाँ
में फैलाती महक़ आज भी भारत को बेपनाह खुशबूदार बनाते हुए जैसे इकबाल का वही शेर
गुनगुना रहीं हैं “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता
हमारा”। क्योकि पंडित जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र-निर्माता
थें। आज वह अलौकिक प्रकाश-पुंज हमारे बीच नहीं है किन्तु उनका दिखाया गया प्रकाश
सदैव भारतवासियों का मार्गदर्शन करता रहेगा। यह राष्ट्र हमेशा उन्हे याद करता
रहेगा। इतिहास कभी उन्हे न भुला पाएगा।